मीडिया के मजदूरों की मज़बूर-गाथा के दो शब्द....
हम,
कितने बेचारे हैं ?
लाचार,
थके-हारे...
युद्ध में पराजित सा योद्धा ।
चले थे,
दुनिया को दीया दिखाने,
मगर,
भूल गए थे...
कि, हम वहां खड़े हैं,
तलहटी में,
जहां कभी रौशनी पहुंच ही नहीं सकती ।
अंधेरे ने
ठूंठ बना दिया है,
हमें,
और, हमारी चेतना को...
जो कभी,
दुनिया को छांव देती थी,
पथिकों को आगे का रास्ता दिखाती थी।
फिर भी,
नाउम्मीदों के बीच,
एक उम्मीद बना रखी है,
मानसून का...
झमाझम बारिश का...
दादुरों के शोर का...
कौवों के कांव-कांव का...
मगर,
निर्लज्ज जेठ,
हमारी जिंदगी से,
जाने का नाम ही नहीं लेता,
निगोड़ा बादल,
कभी झलक दिखलाता ही नहीं।
फिर,
कैसे कहूं...
शरद आएगा...
शिशिर आएगा...
और फिर,
आएगा बसंत...
हमारी जिंदगी का ...।
सुंदर कविता. भावपूर्ण, विचारोत्तेजक. ब्लॉग जगत में स्वागत है...
ReplyDeleteaapke vicharon main kakolat ke jharnon ki kadamtal to kawakol ki kautoohal rachi basi hai.Dhanyavad.
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