Sunday, October 24, 2010

बिहार में दो चरणों में कुल 92 सीटों पर विधानसभा चुनाव हो चुके हैं...पहले चरण में 54 और दूसरे चरण में 53 फीसदी वोटरों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया..आयोग इसे बड़ी कामयाबी मान रहा है..इसके पीछे जन जागरण और सरकारी प्रयासों को श्रेय दे रहा है.. लोकतंत्र के इस महापर्व में युवाओं, बुजूर्गों और महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.. लेकिन सबसे अच्छी बात ये रही कि उनलोगों ने भी इस महापर्व में बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाई,,जो शारीरिक रुप से कमजोर थे...या फिर, बैसाखी के सहारे चल रहे थे.. दूसरे चरण में तो समस्तीपुर में एक अधेड़ बाप अपनी दो जन्मांध बेटियों को कांधे पर लेकर वोटिंग बूथ की तरफ जाता दिखा... पूरे बिहार ने इस पिता को औऱ ऐसे वोटरों की हिम्मत और जज्बे को सलाम किया.. ऐसे जांबाजों को मेरा भी सलाम... लेकिन, चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थानों को थोड़ा रुककर सोचना चाहिए... कि,, क्या ऐसे लोगों को ब्रांड अम्बेस्डर नहीं बनाया जाना चाहिए.. क्या, ऐसे लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरुक होने और उसका इस्तेमाल करने के लिए पुरस्कृत नहीं किया जाना चाहिए..उस वक्त,, जब अधिकांश आबादी, खासकर शहरी मतदाता और युवा वर्ग मताधिकार का उपयोग करने से दूर भागता हो.. लोकतंत्र के ऐसे रणबांकुरों के उत्साह और जज्बे को फिर सलाम।।।

जल्द आ रहा हूं...

महोदया/ महोदया,
बीमारी और अतिव्यसत्तता के उपरांत लंबे अंतराल के बाद जल्द ब्लॉग पर आ रहा हूं..
धन्यवाद..

Wednesday, July 21, 2010

मदारी भी और खिलाड़ी भी




पिछले पन्द्रह सालों के जिस कुशासन के लिए लालू-राबड़ी सरकार बदनाम रही,,,और जनता ने जिसके खिलाफ जनादेश देकर नीतीश को सत्ता के शीर्ष शिखर तक पहुंचाया... नीतीश सरकार भी कमोबेश, उसी जमात में अब शामिल होती नजर आ रही है। सीएजी की रिपोर्ट में ये खुलासा हुआ है कि साल २००२ से लेकर साल २०१० तक करीब सोलह हजार करोड़ रुपए का ट्रेजरी घोटाला बिहार में हुआ है। घोटालों के इन आठ सालों में साढ़े तीन साल लालू-राबड़ी शासन के हैं,,जबकि साढ़े चार साल नीतीश के सुशासन का काल है।
यानी, लूट-खसोट का जो सिलसिला लालू-राबड़ी ने शुरु किया था,,उसे नीतीश सरकार ने भी पालने-पोषने का ही काम किया है। लुटेरों की अपनी जमात में शामिल होने पर जब लालू प्रसाद और उनकी पार्टी राजद ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से इस्तीफा मांगा तब सियासत गर्म हो गई। मामले में सीबीआई जांच के पटना हाईकोर्ट के निर्देश ने भी तड़का लगाने का काम किया।
दरअसल, नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सभी विपक्षी दलों ने इस मुद्दे को चुनावी ब्रह्मास्त्र समझ लिया। फिर क्या था...संग्राम तो मचना ही था...क्योंकि सभी सियासतदानों को अपनी सियासत चमकाने का इससे भला मौका और कहां मिलने वाला था...लिहाजा, सभी विपक्षी दलों ने एक साथ नीतीश कुमार से इस्तीफे की मांग कर डाली.. और सदन से सड़क तक मोर्चा संभाल लिया। तोड़फोड़ का। धरना प्रदर्शन का। और कैमरे पर अपने-अपने अनूठे अंदाज पेश करने का।

इन सबके बीच मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष विपक्षियों के निशाने पर रहे। खासकर स्पीकर उदय नारायण चौधरी। जिनपर सदन में चप्पल तक फेंकी गई। सियासी गलियारों में ये भी चर्चा है कि स्पीकर सत्तारुढ़ दल के हैं...या फिर पूरे सदन के? अगर पूरे सदन के हैं तो रातभर विधानसभा के बाहर धरना दे रहे विधायकों का हालचाल पूछने वो क्यों नहीं आए ? उन्होंने उन महिला विधायकों का खैर मकदम क्यों नहीं किया..? हंगामा करने पर तुरंत मार्शल का सहारा क्यों लिया..? और आखिरकार उन्होंने पटना हाईकोर्ट के निर्देश को चुनौती भी दे डाली। इधर, लालू अब पूछ रहे हैं कि नीतीश सरकार अगर घोटाले में शामिल नहीं है,,तो वो सीबीआई जांच से क्यों हड़क रही है।

अब सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में ठन गई है।बिहार की राजनीति के चाणक्य कहलाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जहां अपने को बेदाग बताकर चुनावी बैतरणी पार करने की जुगत में हैं..वहीं लालू प्रसाद समेत तमाम विपक्ष नीतीश को घोटालेबाज और भ्रष्ट बताकर उनकी धार कुंद करने की फिराक में है। मगर ये नुमाइंदे भूल बैठे हैं कि विधानसभा से बड़ा अखाड़ा चुनाव का मैदान होता है, जहां गमला तोड़ प्रतियोगिता नहीं चलने वाली।

कुल मिलाकर बिहार विधानसभा दो दिनों से बेशर्मी की सभा बनी हुई है, जहां हमारे नुमाइंदे अपने मूल कर्तव्य से हटकर वो सबकुछ कर रहे हैं...जिससे सियासी सिक्का चमकता है..या यूं कहें कि चमकाया जाता है। दरअसल, ये नौटंकी नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों की पटकथा मात्र है...जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष,,दोनों... एक ही तमाशे के मदारी भी हैं और खिलाड़ी भी...

Sunday, June 20, 2010

जब बाबूजी उछल पड़े थे


ब बाबूजी को उछलते देखा था। पहली बार। शायद, पहली ही बार। साल 1987 था। महीना दिसंबर का। उनके दो बेटों ने एक ही दिन अलग-अलग प्रतियोगिता परीक्षा पास की थी। एक ने पॉलिटेक्निक की। दूसरे ने नवोदय विद्यालय की। उन दिनों गंवई परिवेश के लड़कों के लिए ये परीक्षाएं पास करना टेढ़ी खीर होती थी। टेढ़ी खीर क्या कहें, सुदूर गांव के लोगों के लिए पॉलिटेक्निक आज के आईआईटी से कम नहीं होता था। और नवोदय तो लोग जानते भी नहीं थे, क्योंकि साल 1986 में ही नवोदय विद्यालयों की शुरुआत हुई थी। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के सपनों को साकार करने। बिहार के नवादा जिले में ये परीक्षा पहली बार हुई थी, कौवाकोल ब्लॉक से सिर्फ चार लड़कों का चयन हुआ था। उनमें मैं भी एक था। जबकि नवादा जिले से भी सिर्फ चार लोगों ने ही उस साल पॉलिटेक्निक परीक्षा पास की थी। इलाके में बाबूजी के नाम का डंका बज गया था। क्यों बजा था डंका? मैं समझता हूं कि अब आपको बताने की जरुरत नहीं है।
लेकिन कल की ही बात है, जब बाबूजी को फोन पर कुंठा और अवसादग्रस्त पाया। या यूं कहें कि अपराधबोध में लीन पाया। मोबाइल पर उनकी आवाज बहुत धीरे-धीरे आ रही थी। कह रहे थे, तबियत ठीक नहीं है, तो घर चले आओ। जान है तो जहान है। लेकिन मैंने बाबूजी को न कहकर उन्हें निरुत्तरित कर दिया। फिर धीरे से उन्होंने फोन माई को थमा दिया, और मां रो पड़ी। ये कहते हुए कि बाबूजी बड़े दुखी हैं। मुझे और मेरे स्वास्थ्य को लेकर। मैंने उन दोनों बुजुर्गों को छद्म ढाढ़स बंधाने की कोशिश की, लेकिन शायद मैं असफल रहा था। छद्म इसलिए कि मैं जानता था कि लाख चाहने पर भी मैं बाबूजी के करीब, उनके धोती-कुर्ते और बंडी वाली भौतिक काया के पास नहीं पहुंच सकता, और न ही मां की गोद में सिर रख सकता हूं, जो अक्सर पास आने पर अपना हाथ मेरे सिर पर फेरती रहती हैं। तैंतीस साल की उम्र में मैंने पहली बार अपने जनज द्वय को इस तरह मायूस महसूस किया था। रात भर सो नहीं सका।

सुबह अधकचरी नींद से जब जगा तो, घड़ी इशारा कर रही थी कि जल्द तैयार हो जाओ, और भागम भाग भरी जिंदगी के चक्की में पिसने को तैयार हो जाओ। जब 45 डिग्री सेल्सियस तापमान वाली दिल्ली की गर्मी में झुलसता हुआ दफ्तर पहुंचा तो एक वरिष्ठ मित्र ने ठिठोलीवश फादर्स डे की मुबारकबाद दे दी। ठिठोलीवश इसलिए कि अभीतक इस महान रिश्ते में मैं बंध नहीं सका हूं। या यौं कहें कि ईश्वर ने अभीतक इस पावन रिश्ते के लिए मुझे वेटिंग क्यू (इंतजार करने वाली लंबी कतार) में डाल रखा है। फिर दफ्तर में इस फादर्स डे पर लंबी बहस छिड़ी। बहस में भी भाग लिया। बॉलीवुड से बिजनेस और शिक्षा से राजनीति हर क्षेत्र में पड़ताल हुई। बाप-बेटे के पवित्र रिश्ते को लेकर। कई खबरें भी संपादित की। कुछ प्रतीकों और बिम्बों के सहारे दबी पीड़ा उड़ेलने की भी कोशिश की,,लेकिन मन बोझिल का बोझिल ही बना रहा। दिल में भारीपन सा अहसास जारी रहा। शायद, मां-बाबूजी को कल दिया गया न का उत्तर मुझे भीतर ही भीतर खाए जा रहा था। खैर शाम हुई। काम निबटाकर बाबूजी को फोन लगाया। उधर से आवाज आई कैसे हो बेटा? तबियत कैसी है? कहां हो? दफ्तर में या घर पर? तन्ख्वाह मिली? बहू कैसी है? उसकी तबियत कैसी है … ? मैं रो पड़ा। फूट-फूटकर। बाबूजी ने मुझे ढाढ़स बंधाया। जीवन में उतार-चढ़ाव आता रहता है। आज दु:ख है तो कल सुख मिलेगा। सबदिन एक समान नहीं होता। भगवान की मर्जी भी बदलती है। इसे तुम देख लेना। मैंने भी देखा है। कई बार।

अब समझ चुका था कि खबरों के लिए कई पैकेज लिखने के बाद भी मुझे संतोष क्यों नहीं हो रहा था? शायद एक पिता-पुत्र के बीच का असल संवाद बाकी रह गया था। संवाद जीवन का। और जीवन से इतर मोहमुक्त दुनिया का। आज जब पूरी दुनिया के बेटे फादर्स डे पर अपने पापा / डैड को चमचमाते रैपर्स में गिफ्ट दे रहे थे, तब मेरे लिए बाबूजी का यही आशीर्वाद था- “खुश रहो और दूसरों को भी खुश रखने की कोशिश करो”।

Sunday, June 13, 2010

मीडिया के मज़बूर मजदूर


मीडिया के मजदूरों की मज़बूर-गाथा के दो शब्द....


हम,
कितने बेचारे हैं ?
लाचार,
थके-हारे...
युद्ध में पराजित सा योद्धा ।
चले थे,
दुनिया को दीया दिखाने,
मगर,
भूल गए थे...
कि, हम वहां खड़े हैं,
तलहटी में,
जहां कभी रौशनी पहुंच ही नहीं सकती ।
अंधेरे ने
ठूंठ बना दिया है,
हमें,
और, हमारी चेतना को...
जो कभी,
दुनिया को छांव देती थी,
पथिकों को आगे का रास्ता दिखाती थी।
फिर भी,
नाउम्मीदों के बीच,
एक उम्मीद बना रखी है,
मानसून का...
झमाझम बारिश का...
दादुरों के शोर का...
कौवों के कांव-कांव का...
मगर,
निर्लज्ज जेठ,
हमारी जिंदगी से,
जाने का नाम ही नहीं लेता,
निगोड़ा बादल,
कभी झलक दिखलाता ही नहीं।
फिर,
कैसे कहूं...
शरद आएगा...
शिशिर आएगा...
और फिर,
आएगा बसंत...
हमारी जिंदगी का ...।

नमस्कार