Sunday, June 20, 2010

जब बाबूजी उछल पड़े थे


ब बाबूजी को उछलते देखा था। पहली बार। शायद, पहली ही बार। साल 1987 था। महीना दिसंबर का। उनके दो बेटों ने एक ही दिन अलग-अलग प्रतियोगिता परीक्षा पास की थी। एक ने पॉलिटेक्निक की। दूसरे ने नवोदय विद्यालय की। उन दिनों गंवई परिवेश के लड़कों के लिए ये परीक्षाएं पास करना टेढ़ी खीर होती थी। टेढ़ी खीर क्या कहें, सुदूर गांव के लोगों के लिए पॉलिटेक्निक आज के आईआईटी से कम नहीं होता था। और नवोदय तो लोग जानते भी नहीं थे, क्योंकि साल 1986 में ही नवोदय विद्यालयों की शुरुआत हुई थी। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के सपनों को साकार करने। बिहार के नवादा जिले में ये परीक्षा पहली बार हुई थी, कौवाकोल ब्लॉक से सिर्फ चार लड़कों का चयन हुआ था। उनमें मैं भी एक था। जबकि नवादा जिले से भी सिर्फ चार लोगों ने ही उस साल पॉलिटेक्निक परीक्षा पास की थी। इलाके में बाबूजी के नाम का डंका बज गया था। क्यों बजा था डंका? मैं समझता हूं कि अब आपको बताने की जरुरत नहीं है।
लेकिन कल की ही बात है, जब बाबूजी को फोन पर कुंठा और अवसादग्रस्त पाया। या यूं कहें कि अपराधबोध में लीन पाया। मोबाइल पर उनकी आवाज बहुत धीरे-धीरे आ रही थी। कह रहे थे, तबियत ठीक नहीं है, तो घर चले आओ। जान है तो जहान है। लेकिन मैंने बाबूजी को न कहकर उन्हें निरुत्तरित कर दिया। फिर धीरे से उन्होंने फोन माई को थमा दिया, और मां रो पड़ी। ये कहते हुए कि बाबूजी बड़े दुखी हैं। मुझे और मेरे स्वास्थ्य को लेकर। मैंने उन दोनों बुजुर्गों को छद्म ढाढ़स बंधाने की कोशिश की, लेकिन शायद मैं असफल रहा था। छद्म इसलिए कि मैं जानता था कि लाख चाहने पर भी मैं बाबूजी के करीब, उनके धोती-कुर्ते और बंडी वाली भौतिक काया के पास नहीं पहुंच सकता, और न ही मां की गोद में सिर रख सकता हूं, जो अक्सर पास आने पर अपना हाथ मेरे सिर पर फेरती रहती हैं। तैंतीस साल की उम्र में मैंने पहली बार अपने जनज द्वय को इस तरह मायूस महसूस किया था। रात भर सो नहीं सका।

सुबह अधकचरी नींद से जब जगा तो, घड़ी इशारा कर रही थी कि जल्द तैयार हो जाओ, और भागम भाग भरी जिंदगी के चक्की में पिसने को तैयार हो जाओ। जब 45 डिग्री सेल्सियस तापमान वाली दिल्ली की गर्मी में झुलसता हुआ दफ्तर पहुंचा तो एक वरिष्ठ मित्र ने ठिठोलीवश फादर्स डे की मुबारकबाद दे दी। ठिठोलीवश इसलिए कि अभीतक इस महान रिश्ते में मैं बंध नहीं सका हूं। या यौं कहें कि ईश्वर ने अभीतक इस पावन रिश्ते के लिए मुझे वेटिंग क्यू (इंतजार करने वाली लंबी कतार) में डाल रखा है। फिर दफ्तर में इस फादर्स डे पर लंबी बहस छिड़ी। बहस में भी भाग लिया। बॉलीवुड से बिजनेस और शिक्षा से राजनीति हर क्षेत्र में पड़ताल हुई। बाप-बेटे के पवित्र रिश्ते को लेकर। कई खबरें भी संपादित की। कुछ प्रतीकों और बिम्बों के सहारे दबी पीड़ा उड़ेलने की भी कोशिश की,,लेकिन मन बोझिल का बोझिल ही बना रहा। दिल में भारीपन सा अहसास जारी रहा। शायद, मां-बाबूजी को कल दिया गया न का उत्तर मुझे भीतर ही भीतर खाए जा रहा था। खैर शाम हुई। काम निबटाकर बाबूजी को फोन लगाया। उधर से आवाज आई कैसे हो बेटा? तबियत कैसी है? कहां हो? दफ्तर में या घर पर? तन्ख्वाह मिली? बहू कैसी है? उसकी तबियत कैसी है … ? मैं रो पड़ा। फूट-फूटकर। बाबूजी ने मुझे ढाढ़स बंधाया। जीवन में उतार-चढ़ाव आता रहता है। आज दु:ख है तो कल सुख मिलेगा। सबदिन एक समान नहीं होता। भगवान की मर्जी भी बदलती है। इसे तुम देख लेना। मैंने भी देखा है। कई बार।

अब समझ चुका था कि खबरों के लिए कई पैकेज लिखने के बाद भी मुझे संतोष क्यों नहीं हो रहा था? शायद एक पिता-पुत्र के बीच का असल संवाद बाकी रह गया था। संवाद जीवन का। और जीवन से इतर मोहमुक्त दुनिया का। आज जब पूरी दुनिया के बेटे फादर्स डे पर अपने पापा / डैड को चमचमाते रैपर्स में गिफ्ट दे रहे थे, तब मेरे लिए बाबूजी का यही आशीर्वाद था- “खुश रहो और दूसरों को भी खुश रखने की कोशिश करो”।

Sunday, June 13, 2010

मीडिया के मज़बूर मजदूर


मीडिया के मजदूरों की मज़बूर-गाथा के दो शब्द....


हम,
कितने बेचारे हैं ?
लाचार,
थके-हारे...
युद्ध में पराजित सा योद्धा ।
चले थे,
दुनिया को दीया दिखाने,
मगर,
भूल गए थे...
कि, हम वहां खड़े हैं,
तलहटी में,
जहां कभी रौशनी पहुंच ही नहीं सकती ।
अंधेरे ने
ठूंठ बना दिया है,
हमें,
और, हमारी चेतना को...
जो कभी,
दुनिया को छांव देती थी,
पथिकों को आगे का रास्ता दिखाती थी।
फिर भी,
नाउम्मीदों के बीच,
एक उम्मीद बना रखी है,
मानसून का...
झमाझम बारिश का...
दादुरों के शोर का...
कौवों के कांव-कांव का...
मगर,
निर्लज्ज जेठ,
हमारी जिंदगी से,
जाने का नाम ही नहीं लेता,
निगोड़ा बादल,
कभी झलक दिखलाता ही नहीं।
फिर,
कैसे कहूं...
शरद आएगा...
शिशिर आएगा...
और फिर,
आएगा बसंत...
हमारी जिंदगी का ...।

नमस्कार