Saturday, May 7, 2011

मां...




कल रात सपने में आईं मां...
मूंदे नयनों में इक लौ जला गईं मां।
सालों पहले,
उंगली पकड़कर चलना सिखाया,
जिंदगानी की महफ़िल में इक शमा जलाया।
मगर,
इस वीरान शहर में,
जज़्बातों के श्मसान में,
अब, कोई अपनापन दिखाता नहीं,
अरमानों की सीढ़ियां चढ़ाता नहीं,
लड़खड़ाने पर भी कोई उठाता नहीं,
तब, मां की कमी खूब खलती है....।
देर रात जब,
रंगीन दुनिया बेनूर हो जाती है,
चंदा मामा भी आलस्य के आगोश में समा जाता है,
तब, रात की तन्हाई में,
दीये का उजाला लिए,
चुपचाप,
सिरहाने आती हैं मां....।
और,
बंद आंखों में
जीने की ललक जगा जाती हैं मां...
कहती हैं,
हसरतों की उड़ान टलने ना दो,
जिंदगी की रफ्तार थमने ना दो,
ये अंधेरा वक्त दो वक्त का है,
शाम-बेशाम क़ाफ़ूर हो जाएगा।
कल रात सपने में आईं मां...
मूंदे नयनों में इक लौ जला गईं मां।
(प्रमोद प्रवीण)